वैक्सीन आने से पहले ही अमेरिका ने 45 हजार करोड़ की डील की, ब्रिटेन के पास आबादी से 6 गुना ज्यादा डोज होंगे; स्वाइन फ्लू के वक्त दुनिया भुगत चुकी है इसका नतीजा


कोरोनावायरस के इस दौर में कई नए-नए शब्द सुनने को मिले हैं। जैसे क्वारैंटाइन, सोशल डिस्टेंसिंग, कोविड, एल्बो बंप (हाथ मिलाने की जगह कोहनी टकराना) वगैरह-वगैरह। इन शब्दों के बाद अब एक और नया शब्द आया है और वो है- 'वैक्सीन नेशनलिज्म' या 'वैक्सीन राष्ट्रवाद'। जब कोई अमीर या विकसीत देश किसी वैक्सीन के बनने से पहले ही वैक्सीन बनाने वाली कंपनी से डोज खरीदने की डील कर लेता है, तो उसे वैक्सीन नेशनलिज्म कहते हैं।

वैक्सीन नेशनलिज्म आज बहुत चर्चा में है। कारण है कोरोनावायरस की वैक्सीन। उम्मीद है कि इस साल के आखिरी तक कोरोना की वैक्सीन मिल जाएगी। रूस ने तो वैक्सीन बनाने का दावा भी कर दिया और उसका बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन भी शुरू होने वाला है। इसी तरह चीन भी वैक्सीन के प्रोडक्शन की तैयारी शुरू करने वाला है। अमेरिका, ब्रिटेन और भारत समेत दुनिया के कई देशों में वैक्सीन के ट्रायल चल रहे हैं।

इसी हफ्ते एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में डब्ल्यूएचओ के चीफ टेड्रोस गेब्रेयेसेस ने दुनिया के सभी देशों से वैक्सीन नेशनलिज्म से बचने को कहा है। डब्ल्यूएचओ चीफ ने कहा कि 'हमें वैक्सीन नेशनलिज्म रोकने की जरूरत है। क्योंकि रणनीतिक रूप से सप्लाई करना असल में हर देश के हित में है।'

वैक्सीन नेशनलिज्म क्यों खतरनाक है? उसे समझने से पहले देखते हैं अमेरिका, ब्रिटेन और भारत जैसे देश कोरोना वैक्सीन को लेकर क्या कर रहे हैं?

  • ब्रिटेन ने 9 करोड़ डोज की डील की, अमेरिका में भी अक्टूबर तक आ जाएंगे 30 करोड़ डोज

1. अमेरिका : ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजैनेका की वैक्सीन AZD1222 के साथ 1.2 अरब डॉलर (9 हजार करोड़ रुपए) की डील की है, जिसके तहत अमेरिका को अक्टूबर तक 30 करोड़ डोज मिलेंगे। इसके अलावा वैक्सीन की सप्लाई को लेकर अमेरिका दुनिया की अलग-अलग फार्मा कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर (45 हजार करोड़ रुपए) की डील करने वाला है या कर चुका है। अमेरिका ने जनवरी 2021 तक अपनी सारी आबादी को कोरोना वैक्सीन देने का टारगेट रखा है।

2. ब्रिटेन : यहां की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ही वैक्सीन बना रही है। फिर भी ब्रिटेन दुनिया के दूसरे देशों के साथ वैक्सीन के लिए डील कर रहा है। पिछले हफ्ते ही ब्रिटिश सरकार ने वैक्सीन के 9 करोड़ डोज के लिए अमेरिका की बायोटेक कंपनी नोवावैक्स और बेल्जियम की जैन्सन फार्मास्यूटिकल कंपनी से डील की है। इस डील के साथ ही ब्रिटेन में अब 34 करोड़ डोज हो जाएंगे। जबकि, यहां की आबादी 6.6 करोड़ के आसपास ही है।

3. यूरोपियन यूनियन : वैक्सीन के 60 करोड़ डोज पहले ही खरीदने की डील हो चुकी है। इसमें से 30 करोड़ डोज ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मिलेंगे और बाकी 30 करोड़ डोज फ्रांस की फार्मास्यूटिकल कंपनी सनोफी से मिलेंगे।

4. जापान : अमेरिकी कंपनी फिजर और जर्मनी की कंपनी बायोएनटेक भी साथ मिलकर एक वैक्सीन पर काम कर रही है। जापान ने इनके साथ 12 करोड़ डोज खरीदने की डील की है। वैक्सीन के डोज जापान को जून 2021 तक मिल सकते हैं। जबकि, जापान की आबादी तकरीबन 6 करोड़ है।

5. भारत : रूस ने इसी महीने दुनिया की पहली कोरोना वैक्सीन बनाने का दावा किया है। हालांकि, डब्ल्यूएचओ इस पर सवाल उठा रहा है। रूस की इस वैक्सीन 'स्पूतनिक V' को लेकर भारत और रूस के बीच बात चल रही है। स्पूतनिक V का प्रोडक्शन अगले महीने से शुरू होगा, जबकि अक्टूबर से वैक्सीनेशन शुरू हो जाएगा। इसके अलावा ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन का भारत में भी ट्रायल चल रहा है। भारत में इसका प्रोडक्शन सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कर रही है। कंपनी के मुताबिक, मार्च 2021 तक इसके 30 से 40 करोड़ डोज तैयार कर लिए जाएंगे।

वैक्सीन नेशनलिज्म क्यों खतरनाक है? इसके तीन कारण
पहला : अमीर देशों तक ही पहुंचेगी वैक्सीन

बड़े और अमीर देश वैक्सीन बनने से पहले ही फार्मा कंपनियों से इसे खरीदने की डील कर रहे हैं। इससे अगर कल को वैक्सीन सफल हो जाती है, तो अमीर देशों के पास वैक्सीन सबसे पहले पहुंच जाएगी, जबकि छोटे और गरीब देशों तक इसकी पहुंच नहीं होगी। इससे अमीर देशों में तो महामारी कंट्रोल में आ सकती है, लेकिन गरीब देशों में इससे हालात नहीं सुधरेंगे।

दूसरा : गरीब देशों में महामारी और खतरनाक हो जाएगी
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की एक संस्था है गावी। इसके चीफ एग्जीक्यूटिव सेथ बर्कली ने रॉयटर्स से कहा था, 'अगर वैक्सीन के दो डोज हैं और आप पूरे अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की आबादी को वैक्सीन के डोज देने की कोशिश कर रहे हैं, तो आपको 1.7 अरब डोज की जरूरत होगी। और अगर ये मौजूद डोज की संख्या है, तो दूसरे देशों के लिए बहुत कुछ नहीं बचेगा। अगर 30-40 देशों के पास वैक्सीन है और 150 देशों के पास नहीं है, तो महामारी से वहां बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा।'

तीसरा : स्वाइन फ्लू के दौर में देख चुके हैं इसका असर
2009 में दुनियाभर में स्वाइन फ्लू फैला था। इससे 2.84 लाख लोगों की मौत हुई थी। महज 7 महीनों की भीतर ही स्वाइन फ्लू की वैक्सीन बनकर तैयार हो गई थी। इसे ऑस्ट्रेलिया ने बनाया था। लेकिन, ऑस्ट्रेलिया ने वैक्सीन के एक्सपोर्ट पर तब तक रोक लगाए रखी, जब तक उसकी सारी आबादी तक वैक्सीन नहीं पहुंच गई। उस समय अनुमान लगाया गया था कि स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए वैक्सीन के 2 अरब डोज की जरूरत है, जिसमें से अकेले 60 करोड़ अमेरिका ने खरीद लिए थे।

वैक्सीन नेशनलिज्म रोकने के लिए बना 'कोवैक्स'
वैक्सीन नेशनलिज्म को रोकने और गरीब-छोटे देशों तक भी जल्दी वैक्सीन पहुंचाने के मकसद से 'कोवैक्स' नाम की फाइनेंसिंग स्कीम शुरू हुई है। इस स्कीम में गावी, डब्ल्यूएचओ और कोएलिशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (सीईपीआई) शामिल हैं।

गावी के मुताबिक, कोवैक्स में ब्रिटेन समेत दुनिया के 75 अमीर देश शामिल हैं, जो वैक्सीन आने पर 90 से ज्यादा देशों तक वैक्सीन पहुंचाने का काम करेंगे। हालांकि, इसमें अमेरिका, रूस और चीन नहीं आया है। कोवैक्स के जरिए वैक्सीन आने पर छोटे और गरीब देशों की कम से कम 20 फीसदी आबादी को तुरंत वैक्सीन पहुंचाने का टारगेट है। इसके साथ ही 2021 के आखिरी तक दुनिया की 2 अरब आबादी तक वैक्सीन पहुंचाने का टारगेट रखा गया है।

कोवैक्स के जरिए इस साल के आखिर तक 2 अरब डॉलर (15 हजार करोड़ रुपए) जुटाने का लक्ष्य है। अभी तक इसमें से 600 मिलियन डॉलर (4,500 करोड़ रुपए) का फंड जमा भी हो गया है।

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