क्या हमारा लोकतंत्र पैसेवालों का लोकतंत्र होने की कगार पर है?


कोरोना के चलते, इसके इलाज का सब बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। विश्वास है कि अगले साल तक ऐसा टीका खोज लेंगे जो सबके लिए सुरक्षित होगा। अब चर्चा हो रही है कि टीकाकरण कैसे होगा, किसे प्राथमिकता देनी चाहिए।

भारत में भी कोरोना के टीके को लेकर चर्चा में गौर करने लायक है कि टीकाकरण की व्यवस्था और प्राथमिकताओं पर चर्चा में (कम से कम) अंग्रेजी मीडिया में टिके उत्पादक व व्यापारी वर्ग की राय पूछी जा रही है। अन्य देशों में टीके की चर्चा में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक और डॉक्टरों की आवाजें सुनने में आती हैं। यदि मैं साबुन या सैनिटाइजर बनाती हूं और देश में सबसे विश्वसनीय साबुन या सैनिटाइजर की जानकारी पानी हो तो क्या आप चाहेंगे कि वह मेरी राय को आपके सामने ‘विशेषज्ञ’ के रूप में प्रस्तुत करें?

इससे आपको शक होगा क्योंकि मेरा खुद का साबुन/सैनिटाइजर का धंधा है। यदि मुझे (अर्थशास्त्री होने के नाते) देश के स्पेस प्रोग्राम के बारे में पूछा तो क्या मेरी राय के कोई मायने होंगे? यह उदहारण काफी क्लिष्ट, कल्पित या अस्वाभाविक लगेगा लेकिन कुछ हद तक यही हो रहा है। जैसे स्पेस प्रोग्राम की जानकारी मुझे कम होगी, उसी तरह आर्थिक मामलों पर मेरी पकड़ ज्यादा है।

कुछ दिनों से टीके को लेकर बेंगलुरु स्थित दो बिज़नेस टाइकून की राय अंग्रेजी मीडिया में दिखने लगी है। टीका बनाने वालों से न सिर्फ उनके उत्पाद पर सवाल पूछे जा रहे हैं बल्कि इसे लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए, इस पर भी राय मांगी जा रही है। कायदे से दूसरा सवाल जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों से पूछना चाहिए। इन इंटरव्यू में दोनों ने ही टीके को लोगों तक पहुंचाने में आधार की भूमिका पर ज़ोर दिया। दोनों का आधार में निहित स्वार्थ है। एक कांग्रेस की सरकार के समय, आधार को अमल में लाया।

दूसरी व्यक्ति पहले की कंपनी में बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर में बैठती हैं। यदि आपको लग रहा है कि इसमें क्या विशेष है तो खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के समर्थक, अर्थशास्त्र के स्थापक, एडम स्मिथ की बात सुनें, जिन्होंने कहा कि जननीति के मामलों में निजी व्यापारियों की सलाह को शक की नज़र से देखना चाहिए क्योंकि उनका हित जनता के हित के विपरीत होता है।

उदाहरण के लिए जब निजी जगत से कोई सरकार में घुसकर, कर इकठ्ठा करने की नीति बनाते हैं, फिर सरकार छोड़कर अपनी निजी कंपनी में वापस चले आते हैं, और फिर उनकी कंपनी को वही कर इकठ्ठा करने का ठेका मिलता है, तो क्या हमें कार्य करने की ऐसी प्रवृत्ति पर सोचना नहीं चाहिए? यह उदहारण है जीएसटी का, जिसे इनफोसिस के नीलकेणि की अगुवाई में लाया गया और अंत में जीएसटी का ठेका इनफोसिस को ही मिला है। इस तरह का खेल आधार के मामले में भी खेला जा रहा है।

हमारे देश में टीकाकरण का बड़ा अभियान पहले से ही चला आ रहा है। यह ज़रूर सुनने में आता है कि किसी महिला का कोई एक टीका बीच में छूट गया लेकिन यह नहीं सुनने में आया कि कोई महिला जिसे टीका लग चुका था, वह दूसरी बार टीका लगवाने पहुंची हो। फिर टीका लगाने में आधार को जबरदस्ती क्यों घुसाया जा रहा है?

दूसरी ओर पिछले दस सालों में हमने देखा है कि कैसे गरीबों को आधार बनवाने, उसे योजनाओं से जोड़ने में भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ा है। एेसा न कर पाने के कारण वे अपने हकों से वंचित हुए हैं। चाहे जन वितरण प्रणाली का राशन हो या वृद्धावस्था पेंशन। इनसे वंचित होने के फलस्वरूप कुछ लोगों की जानें भी गई हैं। फिर भी आधार को स्वास्थ्य जैसे मूल अधिकार से जोड़ा जा रहा है।

बेशक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मूल सिद्धांत है कि सबकी राय पूछी जाए। अर्थशास्त्र में नोबेल से पुरस्कृत अमर्त्य सेन ने इस पर लिखा है। लेकिन इस सिद्धांत की आड़ में हमारे आसपास क्या हो रहा है? बॉलीवुड और स्पोर्ट्स जगत के सेलिब्रिटी से कोरोना बीमारी के नुस्खे आ रहे हैं। जो इन मुद्दों पर काम करते हैं या जिन पर नीति लागू होगी, उनकी राय के लिए जगह नहीं बचती। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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रीतिका खेड़ा, अर्थशास्त्री दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं

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