आज हमारे ज्यादातर परिवार उस टूटे हुए जूते की तरह हैं, जिसे प्यार-समझदारी के धागे से सिलने की जरूरत है


एक नौ साल का लड़का अपनी बहन का जूता मोची के पास लेकर गया। जूता फटा-पुराना था मगर सिलवाने के अलावा कोई चारा नहीं था क्योंकि घर में पैसों की तंगी थी। मोची के हाथ के कमाल से जूता ठीक तो हो गया, पर घर लौटते वक्त लड़के ने सब्जी खरीदी और जूतों का थैला दुकान के बाहर रख दिया। गलती से चलता-फिरता कबाड़ी वाला उस थैले को उठाकर ले गया।

अब जूते गायब, लड़का परेशान। जब बहन को पता चला तो खूब रोई। एक ही जूता था मेरे पास, अब स्कूल कैसे जाऊंगी? भाई बोला, चिंता मत कर। मेरे पास भी तो एक जोड़ी है। तेरा स्कूल सुबह लगता है, और मेरा दोपहर में। तो एक ही जूता हम दोनों शेयर कर सकते हैं। बस, घर पर किसी को मत बताना, यूं ही मां और पिताजी परेशान होंगे।

तो यहां से शुरू होती है एक सुंदर कहानी। रोज स्कूल के बाद, बहन भाग-भागकर भाई को जूते लाकर देती है। भाई जल्दी से वो जूते पहनकर अपनी क्लास के लिए दौड़ लगाता है। इस सिलसिले में कई छोटे-मोटे हादसे भी हो जाते हैं। जैसे कि बहन के पैर से ओवर-साइज जूता स्लिप होकर गटर में गिर जाता है, बड़ी मुश्किल से वापस मिलता है।

उस दिन भाई गीला जूता पहनकर स्कूल पहुंचता है और वो भी देर से। हेडमास्टर आगबबूला, लड़के को बर्खास्त करना चाहता है। मगर टीचर दरख्वास्त करता है, बच्चा होशियार है, सो उनके कहने पर लड़के को माफ कर दिया। ऐसी कई छोटी-बड़ी विपत्तियां आती हैं, बच्चे उनसे जूझते हैं। मगर गलत रास्ते की तरफ आकर्षित नहीं होते हैं।

ये कहानी है फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हेवन’ की जो ईरान के जाने-माने डायरेक्टर माजिद मजीदी की कल्पना थी। वर्ष 1998 में इस पिक्चर को ऑस्कर अवॉर्ड के लिए भी नॉमीनेट किया गया। हालांकि जीत नहीं मिली, मगर हजारों का दिल जरूर जीता। मैंने दो-चार दिन पहले जब देखी तो आंखें नम हो गईं। और लगा, फिल्म ईरान में बनी पर अपने देश की भी यही कहानी है।

आज पेपर में पढ़ा कि कोविड के कारण कितने लोग पैसों की तंगी से जूझ रहे हैं। कोई मॉल में काम कर रहा था, कोई फैक्टरी में। अब उनकी नौकरी नहीं रही। कोई टेलरिंग का काम कर रहा था, कोई शादी में मेहंदी लगाने का। आजकल डिमांड बहुत कम है। किसी तरह घर चल रहा है, और सबसे बड़ी परेशानी, बच्चों की पढ़ाई की।

फीस जमा करने के लिए, मम्मी अपने गहने गिरवी रखवा कर आईं। बस्ती में ज्वेलर की दुकान पर तीन सौ मंगलसूत्र जमा हैं, साहूकार ने ब्याज की दर भी बढ़ा दी है। पता नहीं वो ज़ेवर कभी वापस मिलेंगे या नहीं। आश्चर्य की बात यह है कि मुश्किल हालात के बावजूद शहर में चोरी-डकैती की कोई न्यूज नहीं।
मजीदी की फिल्म में एक सीन है, जहां मस्जिद के बाहर हजारों जूते बिखरे हुए हैं। उनमें से वो बच्चे अपने लिए एक-एक जूता ले लेते तो उनकी प्रॉब्लम खत्म हो जाती। वहां न सीसीटीवी था, न वॉचमैन। लेकिन उन्होंने मौके का फायदा नहीं उठाया। जब कोई नहीं देख रहा है और आप फिर भी सच्चाई का साथ दे रहे हों… इसे कहते हैं कैरेक्टर का असली इम्तिहान।

ज्यादातर लोग ईश्वर के प्रकोप से डरते हैं। उनका मानना है कि ऊपर से कोई ‘हमें देख रहा है’, हमारे पापों का हिसाब-किताब रख रहा है। इसका कोई प्रूफ नहीं, ये विश्वास की बात है। और उसी पर हमारा समाज कायम है। कानून भी हैं, और कोर्ट कचहरी भी। मगर वहां तक केस पहुंचता नहीं। क्योंकि आपका ज़मीर पहरेदार है।

रोज़ ज़िंदगी हमारी परीक्षा लेती है। बात सिर्फ ईमानदार होने की नहीं, उन बच्चों की संवेदना भी तो देखो। मां-बाप गरीबी के बोझ से दबे हुए हैं, तो उन्हें और परेशानी न हो। इसलिए वो एक ही जोड़ी जूते से काम चला लेते हैं। दूसरी तरफ वो बच्चे जिनके पास सबकुछ है, मगर फिर भी अपने मम्मी-पापा से खुश नहीं हैं।

क्योंकि हर रिश्ते में लेन-देन की भावना आ गई है। आज हमारे ज्यादातर परिवार उस टूटे हुए जूते की तरह हैं, जिसे प्यार और समझदारी के धागे से सिलने की सख्त जरूरत है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर

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