हमारा सवाल है कि क्या सुधारों को हमारी राजनीति के केंद्र में लाया जा सकता है? या, इन्हें किस्तों में और चोरी से लागू करने का सिलसिला जारी रहेगा


कई बार राजनीतिक टिप्पणीकारों पर बुद्धिजीवी जिमनास्ट कहकर व्यंग्य कसा जाता है। तो हम इसी छवि के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय विवाद ट्रिब्यूनल द्वारा 20,000 करोड़ के टैक्स मामले में वोडाफोन के पक्ष में दिए गए फैसले और बिहार में होने वाले चुनावों के बीच संबंध स्थापित कर रहे हैं। ये दोनों ही मामले पुरानी के मुकाबले नई अर्थव्यवस्था और नई राजनीति के लिए एक चुनौती और अवसर उपलब्ध कराते हैं।

वोडाफोन का यह फैसला ऐसे समय पर आया है, जब पिछले तीन दशकों से अर्थव्यवस्था और राजनीति के पुराने तरीकों के सबसे बड़े पक्षकार प्रणब मुखर्जी का निधन हुआ है। उनके साथ कई दशकों में हुई बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ट्रिब्यूनल के फैसले पर भी उनकी प्रतिक्रिया काफी गुस्से भरी होती और वे यह कहते कि हम एक संप्रभु राष्ट्र है और यह फैसला देने वाले वे कौन होते हैं। वह तत्काल ही इस फैसले को चुनौती देते और पूरे गणराज्य की ताकत इसके पीछे लगा देते।

फिर बिहार चुनाव मोदी सरकार के उन सुधारों के बाद हो रहे पहले चुनाव हैं, जिनपर गर्व करते हुए वह अपने विरोधियों पर तंज कसती है: आप कहते थे कि हमने कोई बड़ा सुधार नहीं किया? आप इनके बारे में क्या कहेंगे? कृषि और श्रम से जुड़े इन दोनों ही सुधारों से आर्थिक संकट से जूझ रहे वोटरों के बड़े हिस्से में कुछ समय के लिए नाराजगी उत्पन्न हो सकती है।

यह देखना रोचक होगा कि मोदी और अमित शाह बिहार चुनाव अभियान कैसे तैयार करते हैं। क्या वे इन सुधारों व जोखिम लेने की क्षमता का प्रचार करेंगे? या सिर्फ महामारी के दौरान बांटे गए अनाज और पैसों की बात करेंगे? राजनीतिक अनुभव कहता है कि चुनाव प्रचार में सुधार या भविष्य में संपन्नता के वादे टालने चाहिए। वह पुरानी गरीबी ही है, जो वोट दिलाती है। एक खराब अर्थव्यवस्था के बावजूद मोदी की 2019 की जीत में काफी हद तक घरेलू गैस, शौचालय और मुद्रा ऋण जैसी योजनाओं की भूमिका थी, जिन्होंने गरीबों पर असर डाला। बड़े व गरीब राज्य बिहार में मोदी कौन-सी राह चुनेंगे?

वोडाफोन पर आदेश और बिहार चुनाव मोदी के सामने दोहरी चुनौती पेश करते हैं। पुरानी अर्थव्यवस्था व पुरानी राजनीति तो कहती है कि वह ट्रिब्यूनल के ऑर्डर को चुनौती दें और बिहार में सौगात बांटने की बात करें। लेकिन, अगर यदि वह साहस दिखाएंगे तो वोडाफोन मामले में निर्णय को मानेंगे और बिहार में सुधार व संपन्नता के आधार पर प्रचार करेंगे। परंतु यह बिहार में मोदी के गठबंधन को चुनाव जीतने की गारंटी देगा या नहीं, हम नहीं कह सकते। नई अर्थव्यवस्था के खिलाफ पुरानी राजनीति के जबरदस्त तर्क हैं। सुधारों का दर्द तत्काल होता है और यह अनेक लोगों को प्रभावित करते हैं।

इसका फायदा बहुत बाद में होता है और इसके बाद भी यह अनेक को नाखुश छोड़ देता है। यूपीए के सत्ता में आने के बाद जब बिल क्लिंटन 2006 में भारत आए तो उन्होंने राष्ट्रपति भवन में अपने भाषण में इस बात को अच्छे से बताया। उन्होंने कहा कि हम सभी चकित हैं कि वाजपेयी सरकार भारत की विकास दर को सात फीसदी पर पहुंचाने के बाद भी चुनाव हार गई। जब आपकी विकास दर इतनी ऊंची हो तो आप चुनाव कैसे हार सकते हैं? क्योंकि इससे फायदे में दिखने वाले लोग पीछे छूट गए लोगों की तुलना में बेहद कम होते हैं।

यह राजनीति की कड़वी सच्चाई है। देश का शहरी मध्य वर्ग, जो बीते तीन दशक में मनमोहन सिंह और कांग्रेस के कारण समृद्ध हुआ, उसने 2014 में भाजपा को जमकर वोट दिया। वाम दलों और लालू प्रसाद यादव द्वारा अपने-अपने राज्यों में दशकों तक आधुनिकीकरण और वृद्धि को नहीं आने देने की यह एक वजह हो सकती है। उन्होंने लोगों को जाति और विचारधारा के बंकर में ही सड़ने दिया।

बिहार की राजनीति में हमेशा जटिल व स्थानीय मुद्दे हावी रहे हैं। परंतु यह चुनाव एक बुरे दौर में हो रहा है। बढ़ती महामारी, चीन समस्या और अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट है। साथ ही यह अनुभव कि सुधार और वृद्धि की बातें चुनाव में काम नहीं आतीं। खासतौर पर जब आप दोबारा जीतना चाहते हों। आप यह पूछें कि क्या मोदी ने 2014 में वृद्धि का वादा नहीं किया था तो हम बता दें कि तब वह तत्कालीन सत्ता को चुनौती दे रहे थे। 2019 में दोबारा जीतने के लिए लड़े तो मुद्दा पाकिस्तान और भ्रष्टाचार थे।

2004 में वाजपेयी इंडिया शाइनिंग के प्रचार के बावजूद चुनाव हार गए थे। कांग्रेस भी मानती है कि वह 1996 और 2014 का चुनाव सुधारों के कारण ही हारे। फिर मोदी जोखिम क्यों लेंगे? यदि वह सही मायनों में सुधारक और न्यूनतम सरकार में विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं तो उन्हें वोडाफोन के भूत को दफन कर देना चाहिए। फिर वे बिहार में अपने राजनीतिक रूप से विवादास्पद सुधारों के साथ चुनाव करें।

इन दोनों कामों के लिए उन्हें अपनी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगानी होगी। वह ऐसा कर पाते हैं या नहीं इससे ही हमारे मुख्य सवाल का जवाब मिलेगा। हमारा सवाल है कि क्या सुधारों को हमारी राजनीति के केंद्र में लाया जा सकता है? अन्यथा, इन्हें किस्तों में और चोरी से लागू करने का सिलसिला जारी रहेगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

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